
पुरानी यादों के झरोखों से खास रिपोर्ट*******
तेजस्वी संगठन ट्रस्ट।
झालू में बरसात ने 1957 में मचाया था हाहाकार
आम वाले तालाब का पानी पहुंच गया था चांदपुर के पार *****
*आधा दर्जन से अधिक तालाबों का अस्तित्व खत्म *
*कुएं बनकर रह गये एक पहेली
**रिज़वान सिद्दीकी**
बिजनौर / झालू । कस्बा झालू में 1957 के दौरान हुई बारिश ने हाहाकार मचा दिया था । उस वक्त पानी की प्रलय से बचने के लिए लोगों ने मकान दुकान की छतों को शरणं स्थली बनाकर बामुश्किल जान बचाई थी , और आम वाले तालाब का पानी जगह बनाता हुआ चांदपुर को पार कर गया था । आजादी के दस वर्षों बाद यानी 1957 में बरसात का विकराल रूप देखने को मिला था। जिसने चारों तरफ हाहाकार मचा दिया था। बुजुर्ग बताते हैं पन्द्रह दिन की लगातार हुई बारिश ने जल प्रलय ला दी थी, बारिश का पानी मकानों दुकानों में घुस गया था। उस वक्त लोगों ने मकान – दुकान की छतों को शरणं स्थली बनाकर बामुश्किल जान बचाई थी,और खूंटे से बंधे पालतू पशुओं की जान बचाने के लिए रस्सी काटकर आजाद कर दिया था। जल प्रलय का आलम यह था कि टाउन एरिया क्षेत्र के एक दर्जन से अधिक तालाबों में बरसात का पानी लबालब भर गया और आम वाले तालाब का पानी रेलवे लाइन के बराबर में खस्सों से जगह बनाता हुआ चांदपुर को भी पार कर सलारा तालाब में जाकर मिल गया था। बुजुर्ग बताते हैं उस वक्त लगभग एक दर्जन से अधिक तालाब और इतने ही कुएं हुआ करते थे। जो अब यादगार बनकर रह गए हैं, वर्तमान में दो चार तालाब को छोड़कर बाकी का अस्तित्व ही खत्म हो गया।
सूत्रों की मानें तो उस समय टाउन एरिया क्षेत्र फल के अंदर छपेडा़ झोड़ी , डकोतो वाली झोड़ी, नाईयों वाली झोड़ी,पनवाड़ी झोड़ी, कुम्हारों वाली झोड़ी , बालमिकियो वाली झोड़ी , चील वाली झोड़ी, गुली झोड़ी, गडरियों वाली झोड़ी, कियारा वाली झोड़ी, केला वाली झोड़ी, खोटे वाला तालाब, मक्का वाली झोड़ी, कुरेशियो वाली झोड़ी, नसीरयो वाली झोड़ी, सतियो वाली झोड़ी, आम वाला तालाब आदि थे। वर्तमान में नगर के गणमान्य नागरिकों का कहना है कि भूतपूर्व के जनप्रतिनिधियों की ढुलमुल नीति के चलते तिकड़म -बाज भू-माफियाओं ने नाजायज़ तरीकों से मालिकाना हक जताते हुए तालाबों को भराव से समतल कर खुर्द बुर्द कर दिया ,जिन पर आज आलीशान मकान बने हुए है। अब हालात यह हैं कि दो-चार तालाब बचे हैं,बाकी तालाबों का देखते ही देखते अस्तित्व खत्म हो गया। वर्तमान में तालाब और कुएं एक यादगार बनकर रह गए हैं।
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1962 में गफूर पटवारी ने ईंट पकाने का लगाया था पजाया
टीले के रूप में आज भी मौजूद
कस्बा झालू के बुजुर्ग जानकारों का यह भी कहना हैं कि सन् 1962 में अब्दुल गफूर पटवारी ने आम वाले तालाब पर ईंट पकाने के लिए पजाया लगाया था ,जो आज भी पजाये के नाम से एक टीले के रूप में मौजूद है। आसपास के लोगों ने उस टीले को लघूशंका के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था । गफूर पटवारी की गिनती मालदारों की श्रेणी में आती थी, लेकिन अपने सादगी भरे स्वभाव के चलते वह अपनी चप्पलों को हमेशा बगल में दबाकर चलते थे इसका कारण पूछने पर उनका एक ही जवाब होता कि पैसा बोलता है। उनके दौर में एक सोंग भी काफी मशहूर हुआ था । ***लोंडा पटवारी का बडा़ नमकीन***